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शक्तिशाली क्षत्रिय कोलिय राजा राजा चोल प्रथम:चोल साम्राज्य



चोल शब्द  से कोलिय शब्द   का संबंध:
'चोल' शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न प्रकार से की जाती रही है। चोल शब्द को संस्कृत "काल" एवं "कोल" से संबंध है। चोल शब्द को संस्कृत "चोर" तथा तमिल "चोलम्" से भी संबंध है।
 
चोल साम्राज्य के बारे मे जिसने जीता समुद्व फतह की लंका                                                                     
 
दक्षिण भारत में शक्तिशाली तमिल चोल साम्राज्य का इतिहास 9वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक मिलता है। चोल साम्राज्य के 20 राजाओं ने दक्षिण एशिया के एक बड़े हिस्से पर लगभग 400 साल तक शासन किया। मेगस्थनीज की इंडिका और अशोक के अभिलेख में भी चोलों का उल्लेख किया गया है।
 
कहते हैं कि चोल शासकों ने अपनी विजय यात्रा में आज के केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, बंगाल और दक्षिण एशिया में पूरा हिंद महासागर व श्रीलंका और दक्षिण पूर्व एशिया में अंडमान-निकोबार, मलेशिया, थाईलैंड एवं इंडोनेशिया तक को फतह किया था।
 
विजयालय चोल ने रखी थी नींव:
कांची के पल्लवों के सामंत विजयालय चोल ने सन 850 ईस्वी में तंजौर पर कब्जा कर चोल साम्राज्य की नींव रखी। नौवीं शताब्दी के अंत तक चोलों ने पूरे पल्लव साम्राज्य को हराकर पूरी तरह से तमिल राज्य पर अपना कब्जा कर लिया.इसी कड़ी में आगे 985 ईस्वी में शक्तिशाली चोल राजा अरुमोलीवर्मन ने अपने आपको राजराजा प्रथम घोषित किया, जो आगे चलकर चोल शक्ति को चरमोत्कर्ष पर ले गया।
 
चोल वंश के पहले प्रतापी राजा राजराजा ने अपने 30 के शासन में चोल साम्राज्य को काफी विस्तृत कर लिया था. राजाराज ने पांड्या और केरल राज्यों के राजाओं को हराकर अपनी विजय की शुरुआत की।  उन्होंने पश्चिमी तट, दक्षिणी तट और अपनी शक्तिशाली नौसेना की सहायता से श्रीलंका के उत्तरी राज्य सिंहल द्वीप पर कब्जा किया ।
 
‘राजराज प्रथम’ की रक्त नीति:
शायद इसलिए ही कहा जाता है कि राजराजा के शासन काल में चोल दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य बना। वह पांड्य, केरल व श्रीलंका के राजाओं का मजबूत संघ नष्ट कर अपने अंत समय में मालदीव और मैसूर के कई हिस्सों पर कब्जा करने में सफल रहा। राजराजा प्रथम ने लौह और रक्त की नीति का पालन करते हुए श्रीलंका के शासक महिंद पंचम को पराजित कर मामुण्‍डी चोल मण्डलम नामक नए प्रांत को स्थापित किया।  साथ ही उसकी राजधानी जनजाथमंगलम बनाई। इसके अलावा 1012 ईस्वी में राजराजा ने कंबोडिया के सबसे बड़े हिंदू मंदिर अंकोरवाट को बनवाने वाले राजा सूर्य वर्मन के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए। राजराजा ने 1010 ईस्वी में थंजावुर में भगवान शिव को समर्पित बृहदेश्वर या राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। यह दक्षिण भारतीय शैली में वास्तुकला का उल्लेखनीय नमूना माना जाता है।
 
‘राजेंद्र प्रथम’ ने किया विस्तार:
चोलों के विस्तार की बात आती है, तो राजेंद्र प्रथम का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। 1012 ईस्वी के आसपास चोल साम्राज्य के उत्तराधिकारी बनने के बाद उन्होंने अपने पिता राजराजा की विस्तारवादी विजय नीतियों को आगे बढ़ाया। पिता से भी आगे बढ़कर राजेंद्र प्रथम ने दक्षिण भारत में अपने वंश की महानता का डंका बजाया।
राजेंद्र प्रथम ने चोल साम्राज्य की सीमा का विस्तार अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, श्रीलंका, मालदीव, मलेशिया, दक्षिणी थाईलैंड और इंडोनेशिया तक कर लिया।
 
प्राचीन समय में व्यापार मुख्य रूप से समुद्री मार्ग से होता था।  मालों से लदे जहाज हिंद महासागर होकर चीन-जापान व दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों तक माल ले जाया करते थे। अपने व्यापार को बढ़ाने और समुद्री सुरक्षा के लिए राजेंद्र प्रथम समुद्र जीतने निकल पड़ा। इसने अपने नौसेना बेड़े को मजबूत किया और लड़ाकू जहाजों व छोटे गश्ती जहाजों की टोली बनाकर राज्यों की समुद्री सीमाओं पर तैनात कर दिया।  देखते ही देखते समूचे हिंद महासागर और मालदीव, बंगाल की खाड़ी और मलक्का तक पूरे समुद्र को चोल राजाओं ने जीत लिया और उस पर अपना एकछत्र राज कायम किया।
 
समुद्री व्यापार मार्ग पर कब्जा:
उसने अपने व्यापार को इस रास्ते चीन-जापान और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों तक पहुंचाने के साथ-साथ वहां से गुजरने वाले अन्य जहाजों को भी सुरक्षित किया और उन्हें सुरक्षा प्रदान की। हालांकि, दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से चाेलाें के अच्छे संबंध थे, फिर भी वहां के सैनिक हर राेज चोलों की नावों को लूट लेते थे। इन्हें सबक सिखाने के लिए राजेंद्र प्रथम ने सन् 1025 ईस्वी में गंगा सागर पार कर जावा और सुमात्रा द्वीप पर अधिकार किया. वहीं चोल नौसेना ने इसके बाद मलेशिया पर आक्रमण कर उसके प्रमुख बंदरगाह कंडारम पर अपना कब्जा कर लिया। इन सब के बाद दक्षिण का समुद्री व्यापार मार्ग पूरी तरह से चोलों के कब्जे में था।
 
    उनके बाद उनका बेटा राजाधिराज प्रथम 1044 ईस्वी में गद्दी पर बैठा।  उसने सीलोन में शत्रुतापूर्ण ताकतों को उखाड़ फेंका और इस क्षेत्र को अपने अधीन कर लिया। कोप्पम में चालुक्य राजा सोमेश्वर द्वितीय के साथ लड़ाई में इनकी मौत हो गई। इस कारण आगे उनके भाई राजेंद्र द्वितीय ने राजगद्दी संभाली।
 
    चोल-वंश के कालखंड में, चोल-नौसेना को सबसे शक्तिशाली नौ-सेनाओं में से एक माना जाता था। कहते हैं कि नौसेना के दम पर ही अपने चोल अपने सम्राज्य का विस्तार कर पाए।  सही मायने में उनकी नौसेना ही उनकी असल ताकत थी।  खोज-यात्राओं के कई उदाहरण संगम-साहित्य में आज भी उपलब्ध हैं।  दरअसल विश्व में ज्यादातर नौ-सेनाओं ने बहुत देर के बाद युद्ध-पोतों पर महिलाओं को जाने के लिए मंजूरी दी थी।
     खास बात तो यह है कि चोल-नौसेना में बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं काम करती थी।  वहां उनकी भूमिका अहम होती थी। जरूरत पड़ने पर वह युद्ध में भी शामिल होती।  इसके साथ-साथ चोल-शासकों के पास युद्ध पोतों के निर्माण के बारे में एक समृद्ध ज्ञान था, जिसका प्रयोग करते हुए वह दुश्मन को घुटने टेकने पर मजबूर करते रहे। चोल-नौसेना के महत्व को इसी से समझा जा सकता है कि सदियों बाद भी उसकी प्रासंगिकता बनी हुई है. यहां तक कि नवंबर 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यक्रम मन की बात की बात में इसका गुणगान किया था.
 
चोल साम्राज्य का पतन:
मध्ययुग के कई तमिल कवियों ने भी अपनी कविताओं में चोल राजाओं की विजयों का वर्णन किया है। चोलों के समय महमूद गजनवी जैसे कई आक्रांताओं ने भारत पर लूट के मकसद से आक्रमण कर दिया था।  ऐसे में लुटते उत्तर भारत को देखते हुए राजेंद्र चोल ने सैन्य विस्तार पर ज्यादा बल दिया और अपने सम्राज्य को मजबूत किया।
 
हालांकि, उस समय उसके सामने चुनौतियां कम न थीं वहां राज्यों पर कब्जा करने और वर्चस्व की लड़ाई जारी थी, फिर भी उसने अपनी सेना को मजबूत किया और समुद्र से सुरक्षा के लिए एक नौसेनिक बेड़े की स्थापना की। अपने विशाल समुद्री बेड़े से चोल साम्राज्य ने कई दक्षिण एशियाई शासकों-प्रायद्वीपों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी और उनमें विजयश्री हासिल की। बारहवीं सदी तक चोल साम्राज्य में सबकुछ ठीक-ठाक रहा और वह निरंतर प्रगति के पथ पर बढ़ते रहे, किन्तु आगे वह धीरे-धीरे कमजोर होने लगे। उन्हें चालुक्यों व होयसलों की शत्रुता का सामना करना पड़ा।
 
इस दौर को वह संभाल न पाए और 1267 ईस्वी आते-आते उनका केंद्रीय शासन पूरी तरह से लचर हो गया।  इसका फायदा उठाते हुए 1310 ईस्वी के आसपास अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने उन पर आक्रमण कर, उनका पतन कर दिया।
 
 

The mighty Kshatriya king Raja Chola I

Dynasty                         : Chola Dynasty
Government Period   : 985 AD to 1014 AD
Title                              : Rajakesari
Capital                         : Tanjore
Predecessor                : Uttam Chola
Successor                    : Rajendra Chola I
Father                         : Sundar Chola
Queens                       : Lokmahadevi, Cholmahadevi, Trailokmahadevi, Panchwanmahadevi, Abhimanavalli, Eadamadeviar, Prithvimahadevi
Children                    : Rajendra Chola I, Kundavai Madevadigal
Childhood Name     : Arulmojahivarman
Death                         : 1014 AD

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